
वर्ष 2018 ने भारत के लोकतंत्र-प्रेमी लोगों और फासीवादी मोदी शासन के बीच की मोर्चेबंदी को और तीखा कर दिया है. और जहां एक ओर फासीवादी शक्तियों ने अपना हमला तीखा कर दिया है, वहीं हम देख रहे हैं कि फासीवाद और लोकतंत्र के बीच इस महासंग्राम में जनता भी बड़ी दृढ़तापूर्वक अपनी दावेदारी पेश कर रही है. चरम तीखे आर्थिक संकट के कमरतोड़ बोझ को, भारतीय राजसत्ता की दमनकारी शक्ति को, मीडिया के भटकाने वाले प्रचार और साम्प्रदायिक भीड़-हत्यारे गिरोहों की दमघोटू हिंसा को धता बताते हुए जनता अत्यंत प्रेरणादायक रूप से जवाबी प्रहार कर रही है. जन-प्रतिरोध के बढ़ते संकेत और बढ़ती शक्ति अब तक भाजपा शासन में रहे तीन राज्यों में भाजपा की पराजय में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं. भाजपा को छत्तीसगढ़ में तो करारी हार मिली और लगभग सफाया ही हो गया, और राजस्थान में उनको बड़ा धक्का लगा है और मध्य प्रदेश में भी जोरदार चोटें खानी पड़ी हैं.
जनता के गुस्से ने भाजपा की सत्ता में बने रहने की हमलावर और हताशाभरी बेताब कोशिशों पर जीत हासिल की है. छत्तीसगढ़ में उन्होंने “अर्बन नक्सल” का हौवा खड़ा करके उसके खिलाफ भयंकर तीखा प्रचार चलाया था और योगी आदित्यनाथ के जरिये जहरीला साम्प्रदायिक प्रचार अभियान भी छेड़ा था. मगर फिर भी उन्हें ऐसी करारी हार मिली कि देखने लायक है. उत्तर प्रदेश की जनता ने संघ ब्रिगेड और शिव सेना द्वारा छेड़े गये प्रतियोगितामूलक अयोध्या अभियान को तिरस्कार से अनदेखा कर दिया. इसके बजाय, अखिल भारतीय किसान संघर्ष कोआर्डिनेशन कमेटी (एआईकेएससीसी) ने समूचे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लिया. गोरखपुर से लेकर कैराना तक और अब छत्तीसगढ़ से लेकर तेलंगाना तक, भारत की जनता ने स्पष्ट रूप से और बड़ी जोरदार आवाज में संघ ब्रिगेड के साम्प्रदायिक फासीवादी प्रचार अभियान को नकार दिया है.
जैसे-जैसे दिन गुजरते जा रहे हैं, भारत के ज्यादा से ज्यादा लोग अब महसूस करते जा रहे हैं कि मोदी सरकार ने भारत पर अभूतपूर्व विपदा जैसी चोट की है. अर्थतंत्र और समाज से लेकर लोकतंत्र की हर संस्था तक, और संवैधानिक शासन के मूलभूत ढांचे तक, आधुनिक गणराज्य के बतौर हमारे अस्तित्व के हर पहलू को इस विपदा ने बुरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिया है. तमाम लोकतंत्र-पसंद और देशभक्त भारतीयों के लिये यह एक चुनौती बन गई है कि देश को इस विध्वंस से किस तरह छुटकारा दिलायें, गणराज्य को इस फासीवादी ग्रहण के प्रकोप से कैसे मुक्ति दिलायें. इस फौरी बचाव और राहत कार्य से लेकर पुनर्वास और पुनर्निर्माण की चुनौती तक, लोकतंत्र के सबसे अटल और संकल्पबद्ध रक्षक के बतौर कम्युनिस्टों को अवश्य ही इस नाजुक घड़ी में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभानी होगी.
कारपोरेट मीडिया ने, जिसने मोदी-शाह जोड़ी की चुनाव में अजेयता का मिथक तैयार किया था, अब कांग्रेस के पुनरुत्थान के बारे में कहना शुरू किया है और इसका श्रेय अब राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा हिंदू छवि को हासिल करने और जनता के सामने अभिव्यक्त करने को दिया जा रहा है. जरूर भाजपा अपने लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान को नरेन्द्र मोदी की तथाकथित अपरिहार्यता के इर्द-गिर्द निर्मित करने की कोशिश करेगी, और आगामी लोकसभा चुनाव के प्रस्तुति-पर्व में भय और साम्प्रदायिक एवं राष्ट्रवादी उन्माद का माहौल खड़ा करने की कोशिश में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ेगी. लेकिन अगर हम 2018 में हुए उन तमाम चुनावों और उप-चुनावों पर बारीकी से नजर डालें, जिन्होंने लोकतांत्रिक शक्तियों के विकसित होते फासीवाद-विरोधी संकल्प को प्रतिबिम्बित और शक्तिशाली किया है, तो हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि इस बढ़ते चुनावी और राजनीतिक दिक्-परिवर्तन का “रहस्य” कांग्रेस के हिंदूवादी रवैये में नहीं निहित है, बल्कि असहमति की आवाजों द्वारा दिखाये गये साहस और उनके आत्मबलिदान तथा समाज के विभिन्न हिस्सों के बीच बनी एकता और उनके जुझारू संकल्प में निहित है, जो मोदी-शाह-योगी राज के शिकार बने हैं – छात्र, बेरोजगार, कम तनख्वाह पाने वाले लोग, दुर्व्यवहार के शिकार नौजवान, महिलाएं, दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर और मध्यवर्ग-जनता के इसी प्रतिरोध को अब 2019 में फासीवादी मोदी सरकार पर अंतिम और निर्णायक चोट करनी होगी. और नये साल की शुरूआत करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है कि भारत के मजदूर वर्ग ने 8-9 जनवरी को चौतरफा जनता की हड़ताल का आह्नान दिया है?
1970 के तूफानी दशक में भाकपा(माले) ने लोकतंत्र के लिये संग्राम के दौर में ही खुद को पुनरुज्जीवित किया था. इमरजेन्सी के दौर में चले बर्बर राज्य दमन का मुकाबला करते हुए भाकपा(माले) देश के सबसे दबे-कुचले लोगों के अधिकारों एवं सम्मान के लिये लड़ाई में अविचल डटी रही. 1990 के दशक में जब भाजपा ने अपना फासीवादी एजेन्डे को अंजाम देना शुरू किया तो उसके खिलाफ सशक्त जवाबी हमले की तैयारी करने के लिये हमारी पार्टी खुलकर सामने आ गई. बाबरी मस्जिद के शर्मनाक विध्वंस के बाद दिसम्बर 1992 को कोलकाता में आयोजित भाकपा(माले) के पांचवें महाधिवेशन से लेकर छह वर्ष बाद लखनऊ में आयोजित केन्द्रीय कमेटी की बैठक तक, जब उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली, कामरेड विनोद मिश्र ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने खड़े इस सबसे बड़ी चुनौती का मुकाबला करने में अपनी समूची ऊर्जा और अपना सारा ध्यान लगा दिया था. आज हमें भाकपा(माले) की इसी गौरवमय विरासत को अपनी पूरी शक्ति से बुलंद करना है और फासीवाद को परास्त करने तथा भारत को जनता के लोकतंत्र के रास्ते पर आगे बढ़ाने के कार्यभार में अपना सर्वस्व योगदान करना होगा.